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बढ़ती हुयी कदम मंजिल ढूंढ लाती है
बढ़ती हुयी कदम मंजिल ढूंढ लाती है
निरंतर बढ़ता चल तो मंजिल फ़तेह है
ये विचार तो सस्ती थी जो पलभर में मिट जाती थी
ये उच्च विचारे तो सस्ती रही जो पलभर में मिट जाती थी
हमने तो है बढ़ना सीखा विचारो की हमें फुर्सत कहाँ क्योंकि
बढ़ती हुयी कदम मंजिल ढूंढ लाती है
निरंतर बढ़ता चल तो मंजिल फ़तेह है
गुरुर तो उन्हें भी हुआ होगा
जब पहुंची होगी मंजिल की कश्ती उनके समीप
रुतबा तो अपना भी काम न होगा क्योंकि
बढ़ती हुयी कदम मंजिल ढूंढ लाती है
निरंतर बढ़ता चल तो मंजिल फ़तेह है
हमें तो है अकेला चलना किसी की साथी हमें कहाँ भाती है
आरंभ अपने अधि नहीं अंत अपने अधि नहीं तो
जो जीवन अपना है उन्हें उनके अधि क्योँ करना
मृत मस्तिष्क को जागृत कर क्योंकि
बढ़ती हुयी कदम मंजिल ढूंढ लाती है
निरंतर बढ़ता चल तो मंजिल फ़तेह है
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